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December 20, 2024
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हाल ही के समय में एक आम आदमी अपनी जमा पूंजी को विभिन्न तरह से निवेश करके अपने पैसे को सुरक्षित रखना चाहता है और समय के साथ बढ़ाना भी चाहता है.
लोग विभिन्न तरह से अपने पैसे को इन्वेस्ट करते हैं कुछ लोग शेयर बाजार में अपने पैसे को इन्वेस्ट करते हैं कुछ लोग अपने पैसे को म्युचुअल फंड्स में डालते हैं कुछ कुछ लोग अपने पैसे को फिक्स डिपॉजिट में रखते हैं और कुछ लोग अपने पैसे को सिर्फ सेविंग्स अकाउंट में जमा करते रहते हैं .
रोजमर्रा के जीवन में एक आम आदमी जिस संस्था पर सबसे अधिक भरोसा करके अपनी मेहनत की कमाई को सुरक्षित रखता है उसे बैंक कहते हैं.
एक आम आदमी के लिए उसका बैंक,भरोसे का दूसरा नाम है.
हाल ही में हम कई तरह की खबरें पढ़ते हैं जिसमें हमें पता लगता है कि बहुत सारे बैंकों की माली हालत खराब हो रही है या तो उस बैंक के पास पर्याप्त कैपिटल नहीं बचा है या वह बैंक अपने लोंस में डिफॉल्ट है. ऐसे में एक आम आदमी का भरोसा डगमगाने लगता है.
हमारे देश में इतनी अधिक इकोनॉमिक्स की शिक्षा नहीं दी जाती कि एक आम आदमी भी पर्याप्त जानकारी अपने बैंक के बारे में रख सके इसलिए आज हम आपके लिए ला रहे हैं एक ऐसा आर्टिकल जिससे आप यह समझ पाएंगे कि आप अपना पैसा किस बैंक में रखें कि आपका पैसा भविष्य में भी सुरक्षित रहे.
जब एक के बाद एक बैंक सवालों के घेरे में आने लगते हैं तब आम आदमी का यह भरोसा सिस्टम पर भी टूटने लगता है. पिछले कुछ समय में आपने पढ़ा होगा कि लक्ष्मी विलास बैंक अथवा आरबीएल बैंक जैसे कुछ बैंकों पर आरबीआई ने शिकंजा कसा.
हम सभी जानते हैं कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया सभी बैंकों का नियमन करता है.
लेकिन अगर आपके मन में भी यह सवाल उठता है कि क्या आपका बैंक ठीक-ठाक है या फिर उसकी भी आंतरिक माली हालत ठीक नहीं है आज हम आपको कुछ ऐसे फाइनेंसियल इंडिकेटर्स के बारे में बताएंगे जिन्हें जानने के बाद आप भी यह अंदाजा लगा पाएंगे.

कुछ ऐसे फाइनैंशल इंडिकेटर्स जो कि एक बैंक की माली हालत को स्पष्ट करते हैं वह निम्न है

Non performing asset (NPA)

मोटे तौर पर इसका अर्थ होता है कि क्या किसी बैंक का पैसा कहीं फंसा हुआ है और अगर फंसा हुआ है तो कितना फंसा हुआ है.
अगर आसान भाषा में आप को समझाएं तो इसका अर्थ यह है कि अगर कोई बैंक किसी व्यक्ति को लोन देता है और वह व्यक्ति उस लोन को चुकाने में असमर्थ होता है तो बैंक को वह लोन एनपीए करार देना पड़ता है.
जब हम बैंक में कोई पैसा डिपॉजिट करते हैं तो वह हमारे लिए एक ऐसेट होता है क्योंकि हम उस से ब्याज कमाते हैं. लेकिन वही जमा पैसा उस बैंक के लिए लायबिलिटी बन जाता है क्योंकि उस बैंक को उस पर ब्याज देना है.
लेकिन इसके ही विपरीत जब बैंक किसी को लोन देता है तो वह लोन उस बैंक का ऐसेट कहलाता है क्योंकि वह बैंक उस पर ब्याज कमाता आता है.
जब किसी बैंक के पास किसी लोन पर लगातार तीन महीने तक किश्ते नहीं आती है तो वह उस बैंक के लिए एनपीए बन जाता है.
तब वह एक ऐसा ऐसेट बन जाता है जो सिर्फ नाम का है कमाई उससे नहीं हो रही है. लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि वे रुकी हुई किसके कभी वापस आएंगी ही नहीं. ऐसा भी हो सकता है कि किसी की नौकरी चली गई हो या कारोबार ठप हो गया हो और बाद में वह भुगतान शुरू कर दें.
ऐसे में एनपीए को 3 कैटेगरी में बांटा जाता है
इसे एक उदाहरण से समझते हैं मान लीजिए कि राम, श्याम और रंगलाल ने किसी बैंक से लोन लिया है .
राम ने करीब 3 महीने से कोई किस्त नहीं चुकाई है, श्याम ने 1 साल से कोई किस्त नहीं चुकाई है, और रंगलाल ने 3 साल से कोई किस्त नहीं चुकाई है और वह शहर छोड़ कर जा चुका है.

आरबीआई की भाषा में राम का लोन sub standard asset कहलाता है, जो फसा तो है लेकिन उसके आने की उम्मीद कायम है .
श्याम का लोन doubtful asset कहलाता है, यानी कि उसका लोन डूब भी सकता है.

रंग लाल का लोन जिसके भुगतान का अब कोई चांस नहीं है वह loss of asset कहलाता है.

ऐसे में राम और श्याम की किस्त नहीं आने की भरपाई बैंक अपने निजी पैसे से करता है ताकि आगे लोन देने के लिए सिस्टम में पूंजी बनी रहे.
अलग से पैसे डालने को ही बैंक की भाषा में provisioning कहते हैं.
उदाहरण के लिए मान लीजिए कि किसी बैंक ने एक करोड़ रुपए का लोन बांट रखा है, 9500000 की किस्ते आ रही है, और बाकी 5% में से कुछ 3 महीने से नहीं आ रही और कुछ दो-तीन साल से नहीं आ रही ऐसे में हम कह सकते हैं कि बैंक का ग्रॉस एनपीए 5% है.
बैंक का काम काज और सिस्टम का चक्कर चलता रहे इसलिए बैंक अपने निजी पैसे में से 3% पैसा निकाल कर सिस्टम में डाल देता है. इस प्रोविजनिंग को करने से बैंक का जो एनपीए 5% था वह अब घटकर 2% रह जाता है. बैंकिंग की भाषा में इस 5% को ग्रॉस एनपीए और 2% को नेट एनपीए कहते हैं.
यही नेट एनपीए किसी भी बैंक की माली हालत के मामले में ज्यादा मायने रखता है.
आरबीआई के मानकों के आधार पर यह कहा जाता है कि किसी भी बैंक का एनपीए 3% से अधिक नहीं होना चाहिए परंतु हो सकता है कि कोविड-19 जैसे आपात झटके में एनपीए बढ़ भी जाए.
लेकिन अगर बैंक का एनपीए 3% से अधिक है और वह घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है तो इसका अर्थ यही है कि बैंक की माली हालत किसी भी वक्त खराब हो सकती है.

आइए अब आपको कुछ बैंक का एनपीए बताते हैं.
वर्तमान में आरबीएल बैंक का एनपीए 2.14% है.
देश के सबसे बड़े प्राइवेट सेक्टर बैंक एचडीएफसी के लिए यह NPA 0.4 % है. और पिछले 10 सालों में यह कभी भी 0.5 के ऊपर नहीं गया.
सबसे कम एनपीए के मामले में दूसरा नंबर इंडसइंड बैंक का है जिसके लिए यह 0.84% है. इसके बाद आईसीआईसीआई बैंक 1.1%, फेडरल बैंक 1.2% और कोटक महिंद्रा बैंक के लिए 1.5% है.
और आपको यहां यह देखकर हैरानी भी हो रही होगी कि कम एनपीए के मामले में कोई भी सरकारी बैंक शामिल नहीं है.
देश के सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का एनपीए 1.52 है वहीं दूसरी ओर पंजाब नेशनल बैंक का ग्रॉस एनपीए 14% है और नेट एनपीए 5.7% है. अगर आपने नीरव मोदी घोटाले के बारे में सुना है तो आपको अवश्य ही पता होगा कि पंजाब नेशनल बैंक की यह हालत क्यों है.
परंतु यह दोनों सरकारी बैंक है और इन दोनों के लिए सरकार जिम्मेदार है और वक्त के साथ सरकार इसकी भरपाई कर भी देगी लेकिन प्राइवेट बैंक के लिए यह एनपीए 3% से अधिक होना जोखिम भरा है.
इसलिए ऐसा बैंक जिसका नेट एनपीए 3% से अधिक है उसमें आपका अधिक पैसा रखना या उसके शेयर खरीदना आपके लिए महंगा साबित हो सकता है.

Capital adequacy ratio (CAR)

किसी भी बैंक की माली हालत की जांच करने के लिए capital adequacy ratio सबसे महत्वपूर्ण संकेतको में से एक है.
यह बताता है कि बैंक के पास कम से कम इतना पैसा है कि उसके सभी जोखिम वाले लोन यदि डिफॉल्ट कर दें तो भी वह जमाकर्ताओं की रकम लौटा सकता है. किसी बैंक का capital adequacy ratio इस बात से तय होता है कि उस बैंक की कुल पूंजी के मुकाबले जोखिम वाले लोन कितने हैं .
अगर इसके सूत्र की बात की जाए तो बैंक की कुल पूंजी में अगर जोखिम वाले लोन से भाग दिया जाए तो जो आंकड़ा सामने आता है वही उस बैंक का capital adequacy ratio होता है.
ग्लोबल मानकों के मुताबिक किसी भी बैंक का सी ए आर आठ प्रतिशत से कम नहीं होना चाहिए. लेकिन भारत में आरबीआई ने अधिक सुरक्षा के लिहाज से बैंकों को 9% CAR मेंटेन करने के लिए कहा हुआ है.
फिलहाल देश के सबसे बड़े प्राइवेट सेक्टर बैंक एचडीएफसी के लिए यह c.a.r. 20 प्रतिशत है.
आईसीआईसीआई बैंक के लिए यह 19.5%, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के लिए यह लगभग 13.5% और पंजाब नेशनल बैंक के लिए यह लगभग 15% है.

Liquidity coverage ratio
(LAR)

यह किसी भी बैंक की माली हालत का तीसरा बड़ा इंडिकेटर है. आरबीआई के मानकों के मुताबिक किसी भी बैंक के पास इतना हाई क्वालिटी लिक्विडिटी एसेट (HQLA) होना चाहिए कि वह बैंक उसे जब चाहे गिरवी रखकर या बेच कर अपने अगले 30 दिन की देनदारियों को पूरी कर सके.
इसके लिए आरबीआई ने 100% एल ए आर मेंटेन करने का लक्ष्य दिया हुआ है.
यह रेशों निकलता है बैंक के कुल हाई क्वालिटी लिक्विड एसेट में अगले 1 महीने की देनदारियों या खर्चों से भाग देकर.
HQLA का मतलब होता है कैश, शेयर्स, म्यूच्यूअल फंड्स, बॉन्ड्स,ईटीएफ जो बाजार भाव पर तुरंत बिक जाएं .
यदि किसी बैंक का एल ए आर 100% है तो इसका मतलब है कि वह अपने लिक्विड एसिड बेचकर अपनी अगले 30 दिन की देनदारियों पूरी कर सकता है.
यहां 30 दिन को आधार इसलिए बनाया गया है क्योंकि किसी भी बैंक में वित्तीय समस्या आने पर भारतीय रिजर्व बैंक को दखल देने में कम से कम 30 दिन का समय लग जाता है. ऐसी स्थिति में बैंक के पास पर्याप्त ऐसेट होने पर यह संकट टाला जा सकता है.
हाल ही में आरबीएल बैंक के लिए यह 153% है. एचडीएफसी बैंक के लिए यह एल ए आर 123%है.

Credit deposit ratio (CDR)

यह भी किसी बैंक की माली हालत अथवा वित्तीय ताकत का एक इंडिकेटर है. इसका मतलब होता है कि बैंक में जमा कुल रकम के मुकाबले कितना लोन दिया गया है.
यदि किसी बैंक में ₹100 जमा है और उसने ₹70 लोन पर उठाए हुए हैं तो उस बैंक का सीडीआर 70% कहलाएगा.
आमतौर पर किसी भी अच्छे बैंक का सीडीआर 80% से 90% के बीच रहता है.
अगर यह बहुत कम है तो इसका मतलब है कि बैंक की लोन ग्रोथ बहुत ही खराब है और उसका घाटे में जाना लगभग तय है. और इस सीडीआर का किसी भी बैंक के लिए 100% से ऊपर जाना भी अच्छा नहीं होता क्योंकि इसका मतलब है कि जितना उस बैंक के पास जमा नहीं है उससे अधिक उसने लोन बाट रखे हैं.
हाल ही में भारत के बैंकों का औसत सीडीआर लगभग 72% के करीब था, जो की नोटबंदी के बाद का सबसे कम आंकड़ा था.
हाल ही में आरबीएल बैंक का यह आंकड़ा 74% है.

Net interest margin

बैंक कैसे कमाई करता है यह आप समझते हैं कि बैंक हम से पैसे लेता है और एक तय रेट पर ब्याज देता है किसी अन्य को. और इस सब के बीच जो ब्याज से बैंक का मुनाफा होता है वही एन आई एम कहलाता है.
और यही इनकम भी बैंक की माली हालत बताती है हालांकि बैंकों और विशेषत: प्राइवेट बैंकों की इनकम के और भी कई वैकल्पिक स्रोत हो सकते हैं. इंटरेस्ट मार्जिन जितना अधिक होगा बैंक उतना ही अधिक फायदे में होंगे.

Current saving ratio CASA

किसी भी बैंक में रकम मोटे तौर पर तीन खातों में जमा रहती है करंट, सेविंग्स अकाउंट और फिक्स्ड अकाउंट कुल जमा में करंट और सेविंग की हिस्सेदारी सबसे अधिक होती है. करंट अकाउंट और सेविंग्स अकाउंट CASA का अर्थ होता है कि बचत खाते के मुकाबले चालू खाते में कितना पैसा है.
क्योंकि करंट अकाउंट में जमा रकम पर बैंक कोई ब्याज नहीं देता जबकि सेविंग अकाउंट में जमा रकम पर 3% ब्याज तो लगभग देना ही होता है ऐसे में किसी भी बैंक के पास जितना अधिक पैसा उसके करंट अकाउंट में होगा बैंक के लिए उतना ही अच्छा होगा. यानी जिस बैंक का CASA ratio जितना अधिक होगा उस बैंक का उतना ही मुनाफा होगा.
भारतीय स्टेट बैंक का यह रेशों लगभग 46% है.
आरबीएल बैंक का CASA RATIO लगभग 35% है.

यह कुछ महत्वपूर्ण संकेत हैं जो किसी भी बैंक की माली हालत को बता सकते हैं.
हालांकि यदि कोई बैंक किसी विशेष स्थिति में इन पैरामीटर्स पर खड़ा नहीं उतरता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह बैंक अच्छा नहीं है या उस बैंक की माली हालत खराब है कुछ विशेष स्थिति में कोई बैंक इनमें से किसी एक पैरामीटर पर डिफॉल्ट जरूर कर सकता है लेकिन समय के साथ हर बैंक अपनी वित्तीय समस्या का समाधान जरूर करता है.
आशा करते हैं आपको हमारे द्वारा दी गई यह जानकारी पसंद आई होगी कृपया हमारे इस आर्टिकल को उपर के लाइक बटन को दबाकर लाइक करें और कमेंट में हमें आपकी राय जरूर दें.
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One thought on “Financial Indicators for Banks – NPA, CAR, LAR, CDR | क्या आपका बैंक डूबने वाला है? ऐसे समझ जाएंगे आप

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